Milky Mist

Friday, 29 March 2024

इनकी काबिलियत देख इनकी दिव्यांगता का पता नहीं चलता

29-Mar-2024 By भूमिका के
बेंगलुरु

Posted 24 Feb 2018

उनकी उम्र महज 31 साल है, लेकिन वो अपने शब्दों से लोगों को प्रेरणा देती हैं. वो टेडएक्स टाक्स में अपनी बात रख चुकी हैं. नियमित रूप से फ्री डेंटल कैंप आयोजित करती हैं, लोगों को मुफ़्त सलाह देती हैं, और शारीरिक चुनौतियों का सामना कर रहे लोगों के रोज़गार के अधिकारों के लिए काम करने के साथ ही उनके लिए सौंदर्य प्रतियोगिता का आयोजन भी करवा चुकी हैं.
 

डॉ. राजलक्ष्मी एस.जे. बेंगलुरु में आर्थाेडोंटिस्ट (दंत संशोधक) हैं और व्हील चेयर का इस्तेमाल करती हैं. उन्होंने पोलैंड में आयोजित मिस वर्ल्ड व्हीलचेयर 2017 में मिस पॉपुलैरिटी का खिताब जीता हैं.

बेंगलुरु स्थित अपने क्लिनिक में एक मरीज का इलाज करतीं डॉ. राजलक्ष्मी एस.जे..

दक्षिणी बेंगलुरु के एस.जे. डेंटल स्क्वैयर स्थित क्लिनिक में राजलक्ष्मी ने अपनी कहानी बताई. वो पिछले चार साल से यहां प्रैक्टिस कर रही हैं.

साल 2007 की बात है. जब वो कॉलेज में थीं, तब एक सड़क दुर्घटना के बाद उनकी रीढ़ की हड्डी में चोट लगी और कमर से नीचे के हिस्से में उन्हें लकवा मार गया.
 

पहले छह महीने अनिश्चितता में बीते. इस बीच दो असफल सर्जरी हुई और अंतहीन घंटे फ़िजियोथेरेपी सेशंस में लगे.

राजलक्ष्मी याद करती हैं, “शुरुआत में मैं बिना सहारे या तकिये के बैठ भी नहीं सकती थी. हाथ में फ़ोन भी नहीं थाम पाती थी.”

“पहले साल मुझे लगा कि मैं चल लूंगी और लगातार कोशिश करती रही. इसलिए व्हीलचेयर को हाथ तक नहीं लगाया. आज व्हीलचेयर मेरी सबसे अच्छी दोस्त है. 

आख़िरकार मुझे अहसास हुआ कि अगर मैंने सच्चाई स्वीकार नहीं की तो मैं आगे नहीं बढ़ पाऊंगी.”

उन्होंने न सिर्फ़ सच्चाई को स्वीकारा, बल्कि जीवन की नई चुनौतियों को अपनाया भी. एक विशेष रूप से मॉडिफ़ाइड कार और व्हीलचेयर में भारत व दुनिया को देखा. वो काम के सिलसिले में या छुट्टियों पर उत्तर और दक्षिण भारत के अलावा 13 देश जा चुकी हैं.

दुर्घटना और अचानक से सामने आई दिव्यांगता के सदमे के बावजूद उन्होंने ऑर्थाेडोंटिस्ट में अपना बीडीएस पूरा किया और ऑक्सफ़ोर्ड डेंटल कॉलेज बेंगलुरु से साल 2007 में कम्युनिटी डेंटिस्ट्री में प्रथम रैंक हासिल की.

लेकिन डॉ. राजलक्ष्मी रुकी नहीं. उन्होंने निःशक्तजनों के अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी. दिव्यांगों को शिक्षा का अधिकार दिलाने के लिए वो अदालत गईं ताकि वो अपना एमडीएस पूरा कर पाएं. इस प्रक्रिया में दिव्यांगों के लिए तीन प्रतिशत आरक्षण की नीति साल 2010 में पूरे देश में लागू कर दी गई.

डॉ. राजलक्ष्मी ने वर्ष 2014 में मिस व्हीलचेयर इंडिया खिताब जीता.

दिव्यांगों के अधिकारों के लिए राजलक्ष्मी की यह पहली लड़ाई थी. इसके बाद साल 2015 के अंत में उन्होंने एस.जे. फ़ाउंडेशन की स्थापना की. अब इसके बैनर तले वो अपनी लड़ाइयां लड़ती हैं.

इसके बाद राजलक्ष्मी ने साल 2010 में बेंगलुरु के गवर्नमेंट डेंटल कॉलेज से एमडीएस किया और कर्नाटक में आर्थाेडोंटिक्स में गोल्ड मेडल जीता.

व्हीलचेयर पर उन तीन सालों के दौरान बेहद कठिन दिनचर्या थी, क्योंकि कॉलेज क्लिनिक के अलावा उन्हें लैब जाना पड़ता था. घर से असाइनमेंट और केस प्रज़ेंटेशन देने भी जाना होता था.

इन सबके बीच उन्होंने फ़ैशन डिज़ाइन की पढ़ाई की, क्योंकि उन्हें फ़ैशन हमेशा से बेहद पसंद था. इसके अलावा उन्होंने स्वस्थ होने के दौरान साल 2007 और 2008 के बीच साइकोलॉजी और वैदिक योग में कोर्स भी किए.

राजलक्ष्मी कहती हैं, “दुर्घटना के बाद मेरा हालचाल लेने आने वाले सभी लोग मुझसे कहते थे कि तुम इस स्थिति से उबरो और दिव्यांगों के लिए रोल मॉडल बनो.”

“जो बात वो नहीं समझे थे वह यह थी कि 21 साल की यह लड़की अपनी हमउम्रों की तरह आम ज़िंदगी जीना चाहती थी. मैं घूमना चाहती थी, दुनिया देखना चाहती थी, अपना करियर बनाना चाहती थी और शादी करना चाहती थी... मेरे लिए जीवन का यह हिस्सा कभी लोगों को दिखाने के लिए नहीं रहा कि मैं क्या कर सकती हूं, या क्या करने में सक्षम हूं. मैं बस अपना जीवन जीना चाहती थी.”

हमेशा घूमने-फिरने वाली, नृत्य व टेनिस में प्रशिक्षित और मॉडलिंग पर निगाहें जमाने वाली इस लड़की ने साल 2014 में मिस व्हीलचेयर इंडिया स्पर्धा में हिस्सा लिया और जीत गईं.

राजलक्ष्मी कहती हैं, “निःशक्तता को स्वीकार करना मानसिक और शारीरिक दोनों चुनौती थी. शरीर की चोट तो वक्त के साथ ठीक हो जाती है, लेकिन मानसिक तौर पर स्वीकार करना मुश्किल और अधिक महत्वपूर्ण होता है.”

दिव्यांगों के अधिकारों के लिए लड़ने के साथ राजलक्ष्मी प्रेरणादायी उद्बोधन भी देती हैं. (सभी फ़ोटो: एच.के. राजशेकर) 

डॉक्टर पिता के यहां जन्मी राजलक्ष्मी को शुरुआत से मॉडलिंग करना पसंद था. इसलिए वो लगातार सौंदर्य प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती हैं. अपने फ़ाउंडेशन के ज़रिये उन्होंने साल 2015 में बेंगलुरु में मिस व्हीलचेयर इंडिया स्पर्धा का आयोजन भी किया.

अब उनके फ़ाउंडेशन ने अपना ध्यान दिव्यांगों को रोज़गार के अधिकारों के लिए लड़ने पर केंद्रित किया है.

वो तर्क देती हैं, “भारत में निःशक्तता को पूर्णता के रूप में नहीं देखा जाता है. व्यक्ति की दिव्यांगता नापने के लिए तरीक़ों के मानक तय नहीं किए गए हैं. मेरी अपील है कि मूल्यांकन करते वक्त व्यक्ति की शारीरिक स्थिति के अलावा उसके सामाजिक-आर्थिक हालत पर भी ग़ौर किया जाना चाहिए.”

ज़िंदगी में इतनी दूर आने में उनके परिवार का सहयोग महत्वपूर्ण था. कक्षा 10 की पढ़ाई के दौरान पिता के बाद उनकी मां का उन्हें बहुत सहारा मिला. वो अपनी मां को “एकाकी सफल महिला” बताती हैं.

जब आप राजलक्ष्मी से बात करेंगे तो महसूस करेंगे कि वो आशावाद उनमें कूट- कूटकर भरा है. वो हमेशा जिंदगी के सकारात्मक पहलुओं को देखती हैं.

राजलक्ष्मी कहती हैं, “मैं कई ऐसे लोगों को देखती हूं, जो सामान्य दिखते हैं, लेकिन उनकी कई दिव्यांगता अदृश्य होती हैं. मैंने अपने चारों ओर इतनी भावनात्मक विकलांगता देखी है कि मुझे लगता है कि उनकी समस्याएं मुझसे ज्यादा बड़ी हैं.”

उनके मरीज उन्हें एक दिव्यांग डॉक्टर के तौर पर नहीं देखते. मरीज उनके इलाज की गुणवत्ता देखकर उनके पास आते हैं.

वो हंसकर बताती हैं, “मेरे साथ ऐसे कई वाक़ये हुए हैं कि पहली बार क्लिनिक आए मरीज पूछते हैं, क्या मैं डॉक्टर से मिल सकता हूं.”

वो दलील देती हैं कि सार्वजनिक स्थानों पर दिव्यांगों के लिए सुगम्यता बड़ी बहस का मुद्दा है. यह केवल रैंप या समतल जगह होने का ही मामला नहीं है. 

वो कहती हैं, “यह मानव संसाधन और समर्थन तंत्र के बारे में भी है. भारत और विदेश की स्थिति अलग-अलग हैं. आप दोनों की तुलना नहीं कर सकते. आज मैं अकेली मंदिर गई, जहां सिक्योरिटी गार्ड ने मेरी मदद की. लेकिन विदेश में लोग ऐसा करने से हिचकते हैं क्योंकि सांस्कृतिक रूप से वो आपकी पर्सनल स्पेस की इज्ज़त करते हैं.”

मिस व्हीलचेयर वर्ल्ड 2017 स्पर्धा में उन्हें ऐसा लगा कि वो दिव्यांग हैं ही नहीं क्योंकि “वहां ऐसी प्रतियोगी भी थीं, जो सिर्फ़ अपनी आंखें हिला सकती थीं.”

एस.जे. डेंटल स्क्वैयर की बेंगलुरु में जल्द ही दूसरी ब्रांच खुलने वाली है.

राजलक्ष्मी ने रिमोट कंट्रोल से चलने वाली व्हीलचेयर से परहेज़ किया है क्योंकि उनके मुताबिक उन्हें इतनी एक्सरसाइज़ तो करनी ही चाहिए. 

जब वो साल 2014 में ब्यूटी पीजेंट में गईं तो उन्होंने शरीर के सही आकार के लिए डाइटिंग के अलावा एक्सरसाइज़ की थी.

अब वो अपने क्लिनिक की दूसरी ब्रांच शुरू कर रही हैं.

वो दिव्यांगों की मदद करती हैं, उन्हें प्रशिक्षित करती हैं ताकि वो इस बात का पता लगा सकें कि उन्हें किस तरह की व्हीलचेयर की ज़रूरत है.

वो स्कूल, कॉलेज के साथ मिलकर मुफ़्त डेंटल कैंप का आयोजन भी करती हैं.


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • Bijay Kumar Sahoo success story

    देश के 50 सर्वश्रेष्ठ स्कूलों में इनका भी स्कूल

    बिजय कुमार साहू ने शिक्षा हासिल करने के लिए मेहनत की और हर महीने चार से पांच लाख कमाने वाले चार्टर्ड एकाउंटेंट बने. उन्होंने शिक्षा के महत्व को समझा और एक विश्व स्तरीय स्कूल की स्थापना की. भुबनेश्वर से गुरविंदर सिंह की रिपोर्ट
  • Ishaan Singh Bedi's story

    लॉजिस्टिक्स के लीडर

    दिल्ली के ईशान सिंह बेदी ने लॉजिस्टिक्स के क्षेत्र में किस्मत आजमाई, जिसमें नए लोग बहुत कम जाते हैं. तीन कर्मचारियों और एक ट्रक से शुरुआत की. अब उनकी कंपनी में 700 कर्मचारी हैं, 200 ट्रक का बेड़ा है. सालाना टर्नओवर 98 करोड़ रुपए है. ड्राइवरों की समस्या को समझते हुए उन्होंने डिजिटल टेक्नोलॉजी की मदद ली है. उनका पूरा काम टेक्नोलॉजी की मदद से आगे बढ़ रहा है. बता रही हैं सोफिया दानिश खान
  • Match fixing story

    जोड़ी जमाने वाली जोड़ीदार

    देश में मैरिज ब्यूरो के साथ आने वाली समस्याओं को देखते हुए दिल्ली की दो सहेलियों मिशी मेहता सूद और तान्या मल्होत्रा सोंधी ने व्यक्तिगत मैट्रिमोनियल वेबसाइट मैचमी लॉन्च की. लोगों ने इसे हाथोहाथ लिया. वे अब तक करीब 100 शादियां करवा चुकी हैं. कंपनी का टर्नओवर पांच साल में 1 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. बता रही हैं सोफिया दानिश खान
  • Vada story mumbai

    'भाई का वड़ा सबसे बड़ा'

    मुंबई के युवा अक्षय राणे और धनश्री घरत ने 2016 में छोटी सी दुकान से वड़ा पाव और पाव भाजी की दुकान शुरू की. जल्द ही उनके चटकारेदार स्वाद वाले फ्यूजन वड़ा पाव इतने मशहूर हुए कि देशभर में 34 आउटलेट्स खुल गए. अब वे 16 फ्लेवर वाले वड़ा पाव बनाते हैं. मध्यम वर्गीय परिवार से नाता रखने वाले दोनों युवा अब मर्सिडीज सी 200 कार में घूमते हैं. अक्षय और धनश्री की सफलता का राज बता रहे हैं बिलाल खान
  • Rich and cool

    पान स्टाल से एफएमसीजी कंपनी का सफर

    गुजरात के अमरेली के तीन भाइयों ने कभी कोल्डड्रिंक और आइस्क्रीम के स्टाल से शुरुआत की थी. कड़ी मेहनत और लगन से यह कारोबार अब एफएमसीजी कंपनी में बढ़ चुका है. सालाना टर्नओवर 259 करोड़ रुपए है. कंपनी शेयर बाजार में भी लिस्टेड हो चुकी है. अब अगले 10 सालों में 1500 करोड़ का टर्नओवर और देश की शीर्ष 5 एफएमसीजी कंपनियों के शुमार होने का सपना है. बता रहे हैं गुरविंदर सिंह