Milky Mist

Thursday, 25 April 2024

आंवले की खेती कर हर साल कमा रहे 26 लाख रुपए

25-Apr-2024 By पार्थो बर्मन
भरतपुर, राजस्थान

Posted 12 May 2018

क़रीब 23 साल पहले अमर सिंह ने 1,170 रुपए में आंवले के 60 पौधे लगाए. आज वो 26 लाख रुपए बिक्री वाले असाधारण ग्रामीण उद्यमी हैं.

उनकी सफलता की कहानी भरतपुर जिले के सम्मान गांव में लोगों की जुबां पर है और सबको प्रेरणा देती है..

अमर सिंह ने आंवलों के पौधे लगाकर शुरुआत की. बाद में उसके उत्‍पाद बनाने लगे. उनके अमृत ब्रैंड का मुरब्‍बा कुम्‍हेर, भरतपुर, टोंक, डीग, मंडावर, माहवा में घर-घर पहचाना जाने लगा है. (सभी फ़ोटो : पार्थो बर्मन)


57 वर्षीय अमर सिंह ने पारंपरिक खेती से सफलता पाने से परे जाकर एक मिसाल क़ायम की है. ल्‍यूपिन ह्यूमन वेलफ़ेयर रिसर्च ऐंड फ़ाउंडेशन के सीता राम गुप्ता उनकी तारीफ़ करते नहीं थकते.

इसी फाउंडेशन ने ट्रेनिंग और फ़ंड से अमर सिंह की मदद की.

वो कहते हैं, अमर सिंह महिला रोज़गार और सशक्‍तीकरण के आइकॉन बन गए हैं. हमें ऐसे कई अमर सिंह की ज़रूरत है.

हालांकि इस कहानी में कई पड़ाव आए.

बात साल 1976-77 की है, जब अमर सिंह कक्षा 11 में थे. पिता वृंदावन सिंह की मौत के बाद उन्हें पढ़ाई छोड़नी पड़ी. उनके दो भाई और बहन बहुत छोटे थे. परिवार के पास कई एकड़ खेती की ज़मीन थी. इसकी ज़िम्मेदारी अब अमर सिंह पर थी.

लेकिन उनका दिल कहीं और था. वो कुछ साल घर पर रहे और ऑटो चलाकर 500 रुपए रोज़ की कमाई से गुज़ारा करते रहे.

साल 1984-85 में वो मामा के यहां अहमदाबाद चले गए.

मणिनगर में मामा का फ़ोटो स्‍टूडियो था. उन्होंने भी एक फ़ोटो स्टूडियो खोला और उसकी देखरेख के लिए अनुभवी व्यक्ति रख लिया.

इस बीच उनकी माँ सोमवती देवी मज़दूरों के ज़रिये खेती करती रहीं, लेकिन जब कामगार धोखा देने लगे तो दो साल बाद उन्होंने अमर सिंह को चिट्ठी लिखकर गांव लौटने को कहा. अमर वापस आए, लेकिन खेती के बजाय वैन में सवारियां ढोने लगे.

लेकिन यहीं कहानी में एक रोचक मोड़ आया.

साल 1995 की एक सुबह उनका ध्यान सड़क पर गिरे हिंदी अख़बार के एक टुकड़े पर गया. उन्होंने उसे उठाया और पढ़ना शुरू किया.

एक लेख में अमृतफल आंवले का ज़िक्र था.

अख़बार में आंवला की खेती के लेख ने अमर सिंह का जीवन बदल दिया और उन्‍हें समृद्धि की राह पर ला दिया.


अमर सिंह को तत्‍काल सूझा कि उनके पास आंवला उगाने के लिए अच्छी-ख़ासी ज़मीन है और उसमें निवेश भी कम लगेगा. उन्होंने इस बारे में जानकारी जुटानी शुरू कर दी.

उनकी गुहार पर भरतपुर बागवानी विभाग ने उन्हें आंवले के 60 पौधे दिए. हर पौधे की क़ीमत 19.50 रुपए थी. उन्होंने इन पौधों को 2.2 एकड़ उपजाऊ ज़मीन पर उगाया. अगले साल 70 और पौधे ख़रीदकर लगाए.

मेहनत रंग लाई. चार-पांच साल बाद कुछ पेड़ों पर पांच किलो, तो कुछ पर 10 किलो आंवला निकले. पहले साल उन्होंने सात लाख रुपए की बचत की.

ख़ुश होकर वो मथुरा, भरतपुर व भुसावाड़ के मुरब्‍बा बनाने वालों तथा व्‍यापारियों के पास गए और खुदरा बाज़ार को जाना.

उन्हें पता चला कि बड़ा आंवला 10 रुपए किलो में बिकता है, मध्‍यम आकार का आठ, जबकि छोटे आंवले की क़ीमत पांच रुपए किलो थी.

कुछ महीने बिज़नेस अच्छा चला, लेकिन बाद में व्यापारियों ने उन्हें सही दाम नहीं दिए.

अमर सिंह बताते हैं, व्यापारी दावा करते थे कि आंवले का आकार सैंपल में दिखाए गए आंवला से अलग था. वो ये बात उस वक्त बताते थे, जब मैं पूरा माल ट्रक पर लादकर उनकी फ़ैक्ट्री पहुंच जाता था. तब मेरे पास उनकी बात मानने के अलावा कोई चारा नहीं बचता था.

दो-तीन साल ऐसे ही चला, लेकिन जब धैर्य टूटने लगा, तो अमर सिंह ने ख़ुद की फ़ूड प्रोसेसिंग यूनिट शुरू करने का सोचा.

साल 2003 में उन्हें पता चला कि स्थानीय एन.जी.ओ. ल्‍यूपिन ह्यूमन वेलफ़ेयर रिसर्च ऐंड फाउंडेशन गांव की महिलाओं को मुरब्बा बनाने की ट्रेनिंग दे रहा है. वो संस्था के केंद्र गए और आंवला से अलग-अलग खाद्य पदार्थ बनाने की ट्रेनिंग देने के लिए मदद मांगी.

2015-16 में अमर सिंह के यहां 400 क्विंटल आंवलों की बंपर पैदावार हुई.


साल 2005 में उन्होंने पांच लाख रुपए से अमर सेल्फ़ हेल्प ग्रुप की शुरुआत की. इसमें से तीन लाख ल्‍यूपिन ने दिए थे.

पहले साल खेत से निकले 70 क्विंटल (7,000 किलो) आंवलों से 10 महिलाओं की मदद से मुरब्बा बनाया गया.

पिछले एक दशक में अमृता ब्रैंड के नाम से बिकने वाला मुरब्बा कुम्हेर, भरतपुर, टोंक, डीग, मंडावर, माहवा, सुरूथ आदि इलाकों में मशहूर हो गया है.

अमर सिंह के यहां आंवला तोड़ने, छांटने, मुरब्बा बनाने और पैक करने का काम महिलाएं करती हैं. महिलाओं को मज़दूरी तो मिलती ही हैं, घर ले जाने के लिए मुरब्बा, आंवला और आंवले का जूस भी मिलता है.

अमर सिंह आंवला जैम, कैंडी, सिरप और लड्डू भी बनाने लगे हैं.

शुरुआती दो साल के बाद अमर सिंह अपना कारोबार फैलाना चाहते थे, लेकिन निजी और राष्‍ट्रीयकृत बैंकों की 20 प्रतिशत की ऊंची ब्याज़ दर के कारण वो कर्ज़ नहीं ले पाए. ऐसे में एक बार फिर ल्‍यूपिन ने मदद की.

अमर बताते हैं, उन्होंने न सिर्फ़ मुझे दो बार एक प्रतिशत की दर पर एक-एक लाख रुपए कर्ज़ दिया, बल्कि फ़ूड सेफ़्टी ऐंड स्टैंडर्ड्स अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया से लाइसेंस दिलवाने में भी मदद की.

उन्होंने वक्त पर पूरा कर्ज़ लौटा दिया.

अपने खेतों में अमर सिंह.


उनके खेत में अब आंवले के 100 पेड़ हैं. हर पेड़ पर साल में 200-225 किलो आंवले पैदा होते हैं. हालांकि साल 2015-16 में बंपर 400 क्विंटल आंवला हुआ.

साल 2012 में अमर सिंह ने कंपनी का नाम बदलकर अमर मेगा फूड प्राइवेट लिमिटेड रख लिया. उनके 15 कर्मचारियों में 10 महिलाएं हैं.

सालाना 26 लाख रुपए की कमाई के बावजूद अमर सिंह आज सरल जीवन जीते हैं. उन्होंने अपना घर नया करवा लिया है. आंवले लाने-ले जाने के लिए भी ट्रक ख़रीद लिया है. उनके दो बेटे और एक बेटी पढ़ रहे हैं, जबकि पत्‍नी उर्मिला कारोबार में मदद करती है.

अम‍र सिंह अब बैंगन, मिर्च, टमाटर, आलू, सरसों आदि भी उगाने लगे हैं. समग्र रूप से कहें तो अमर सिंह ने साबित कर दिया है कि सही प्रयास से पैसे भी पेड़ पर उगाए जा सकते हैं.


 

आप इन्हें भी पसंद करेंगे

  • Match fixing story

    जोड़ी जमाने वाली जोड़ीदार

    देश में मैरिज ब्यूरो के साथ आने वाली समस्याओं को देखते हुए दिल्ली की दो सहेलियों मिशी मेहता सूद और तान्या मल्होत्रा सोंधी ने व्यक्तिगत मैट्रिमोनियल वेबसाइट मैचमी लॉन्च की. लोगों ने इसे हाथोहाथ लिया. वे अब तक करीब 100 शादियां करवा चुकी हैं. कंपनी का टर्नओवर पांच साल में 1 करोड़ रुपए तक पहुंच गया है. बता रही हैं सोफिया दानिश खान
  • The man who is going to setup India’s first LED manufacturing unit

    एलईडी का जादूगर

    कारोबार गुजरात की रग-रग में दौड़ता है, यह जितेंद्र जोशी ने साबित कर दिखाया है. छोटी-मोटी नौकरियों के बाद उन्होंने कारोबार तो कई किए, अंततः चीन में एलईडी बनाने की इकाई स्थापित की. इसके बाद सफलता उनके क़दम चूमने लगी. उन्होंने राजकोट में एलईडी निर्माण की देश की पहली इकाई स्थापित की है, जहां जल्द की उत्पादन शुरू हो जाएगा. राजकोट से मासुमा भारमल जरीवाला बता रही हैं एक सफलता की अद्भुत कहानी
  • Rhea Singhal's story

    प्लास्टिक के खिलाफ रिया की जंग

    भारत में प्‍लास्टिक के पैकेट में लोगों को खाना खाते देख रिया सिंघल ने एग्रीकल्चर वेस्ट से बायोडिग्रेडेबल, डिस्पोजेबल पैकेजिंग बॉक्स और प्लेट बनाने का बिजनेस शुरू किया. आज इसका टर्नओवर 25 करोड़ है. रिया प्‍लास्टिक के उपयोग को हतोत्साहित कर इको-फ्रेंडली जीने का संदेश देना चाहती हैं.
  • Success story of Susux

    ससक्स की सक्सेस स्टोरी

    30 रुपए से 399 रुपए की रेंज में पुरुषों के टी-शर्ट, शर्ट, ट्राउजर और डेनिम जींस बेचकर मदुरै के फैजल अहमद ने रिटेल गारमेंट मार्केट में तहलका मचा दिया है. उनके ससक्स शोरूम के बाहर एक-एक किलोमीटर लंबी कतारें लग रही हैं. आज उनके ब्रांड का टर्नओवर 50 करोड़ रुपए है. हालांकि यह सफलता यूं ही नहीं मिली. इसके पीछे कई असफलताएं और कड़ा संघर्ष है.
  • Udipi boy took south indian taste to north india and make fortune

    उत्तर भारत का डोसा किंग

    13 साल की उम्र में जयराम बानन घर से भागे, 18 रुपए महीने की नौकरी कर मुंबई की कैंटीन में बर्तन धोए, मेहनत के बल पर कैंटीन के मैनेजर बने, दिल्ली आकर डोसा रेस्तरां खोला और फिर कुछ सालों के कड़े परिश्रम के बाद उत्तर भारत के डोसा किंग बन गए. बिलाल हांडू आपकी मुलाक़ात करवा रहे हैं मशहूर ‘सागर रत्ना’, ‘स्वागत’ जैसी होटल चेन के संस्थापक और मालिक जयराम बानन से.